Description
Published by Nibandh (an imprint of Three Essays Collective)
मंगलेश सम्मान 2024 से सम्मानित पुस्तक
कात्यायनी की कविताओं का यह संकलन हमारे इस संगीन दौर के एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की हैसियत रखता है। एक कवि के बतौर उन्होंने इसे बढ़ते हुए फ़ासीवाद के दौर से आंख मिलाई है और अपनी काव्य-मेधा और विवेक को अपने समय की गवाही देने और कविता में उसका मामला दर्ज करने में सर्फ़ किया है। जहां समाज आज हैं उसे वहां तक लाने में बुद्धिजीवियों और कलाकर्मियों की क्या भूमिका रही है इसपर उन्होंने नज़र रखी है। आज़ादी के बाद के भारत में मध्यवर्ग की दग़ा और ज़मीर फ़रोशी की दास्तान उनके यहां जगह जगह दर्ज है।
कलात्मक और ज्ञानात्मक सृजन के किसी भी रूप में सबसे बड़ी ज़रूरत यह होती है कि चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारा जाए। आज के समय यही काम सबसे मुश्किल दिखता है। कात्यायनी के पास चीज़ों को उनके सही सही नाम से पुकारने का साहस है। पर्दापोशी और लीपापोती उनके यहां नैतिक जुर्म हैं। यही चीज़ उन्हें इस दौर की विश्वसनीय कवि का और लगभग आधुनिक संत का दर्जा दिलाती है।
वह हिंदी कविता में अपने दौर की प्रमुखतम नारीवादी आवाज़ हैं। युवा स्त्रियों को आज़ाद और निर्भीक आत्माभिव्यक्ति का रास्ता दिखाने और यह सिखाने में कि विद्रोह को कविता में कैसे लिखा जाता है उनकी बुनियादी भूमिका है। उनकी स्त्री मानव मुक्ति के हर संघर्ष के केन्द्र में हैं, न कि तमाशबीन की तरह परिधि पर। अलग अहाता बनाकर स्त्रीत्व के मध्यवर्गीय मिथक का आदर्शीकरण, महिमामंडन और प्रकारांतर से ब्राह्मणीकरण करने के प्रतिगामी उपक्रम की वह कठोर आलोचक हैं।
इस संग्रह की बहुत सी कविताओं में इधर के वर्षों की सघन उदासी, विषाद, पिछले वक़्तों को लेकर अफ़सोस और नुक़सान के ब्यौरे हैं। ये उस जिए गए जीवन की गरिमा को ही रेखांकित करते हैं जिसमें वैचारिक और सामाजिक संघर्ष सर्वोपरि मानव मूल्य हैं।
About the Author
कात्यायनी का जन्म 7 मई, 1959 को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), एम.फ़िल. की उपाधि प्राप्त की। 1980 से वे सांस्कृतिक-राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रही हैं। 1986 से कविताएँ लिखना और वैचारिक लेखन प्रारम्भ किया। ‘नवभारत टाइम्स’, ‘स्वतंत्र भारत’ और ‘दिनमान टाइम्स’ आदि के साथ कुछ वर्षों तक पत्रकारिता भी की।
उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं – ‘चेहरों पर आँच’, ‘सात भाइयों के बीच चम्पा’, ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’, ‘जादू नहीं कविता’, ‘राख-अँधेरे की बारिश में’, ‘फ़ुटपाथ पर कुर्सी’, ‘एक कुहरा पारभासी’ (कविता-संग्रह); ‘दुर्गद्वार पर दस्तक’, ‘षड्यंत्रारत मृतात्माओं के बीच’, ‘कुछ जीवन्त कुछ ज्वलन्त’, ‘प्रेम : परंपरा और विद्रोह’ (निबन्ध-संग्रह); ‘क्योंकि ईश्वरचन्द्र नागर ईश्वर नहीं था’ (कहानी संकलन); ‘लहू है कि तब भी गाता है’, ‘समर तो शेष है’ (संपादन)। राजकमल विश्व क्लासिक शृंखला का संपादन किया जिसमें अब तक अट्ठाइस कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। कई भारतीय भाषाओं में विभिन्न कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। कुछ कविताओं के अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुए हैं। ‘प्रेम : परंपरा और विद्रोह’ का नेपाली अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है।
उन्हें ‘शरद बिल्लौरे पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर पुरस्कार’, ‘अपराजिता पुरस्कार’, ‘मुकुट बिहारी सरोज सम्मान’, ‘केदारनाथ अग्रवाल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया है।